Thursday, June 18, 2020

क्या कहें....

तकता तुम्हारी राह कोई पत्थर सा हो गया
इस पर भी तुम्हें ख्याल न आए तो क्या कहें।
बूँद बूँद हाथों से फिसल रही है ज़िन्दगी
अब भी कोई पूछने हाल न आए तो क्या कहें।
हम तो मुनासिब हर जवाबी जिरह को तैयार हैं
फिर भी वो लेकर कोई सवाल न आए तो क्या कहें।
बहकर लहू सरहद पे कहीं जम गया होगा
इस पर भी रगों में उबाल न आए तो क्या कहें।
जहाँ भर के अश्कों को जो अपने दामन में दे पनाह
उसी के हिस्से कोई रूमाल न आए तो क्या कहें।

-रश्मि मिश्रा

किसका किसका शोक मनाऊँ


किसका किसका शोक मनाऊं....

सीमा में रहकर  सीमा पर मिटने  का,
निःशस्त्र निरपराधों के तिरंगे में लिपटने का।
गर्वित व्यथित मन को अब कैसे समझाऊँ,
किसका किसका शोक मनाऊँ.....
कोमल सुकुमार पग को तपता छोड़ धूप में,
गिद्ध पत्रकारिता मगन है खबरों की भूख में।
निर्धन असहायों की ये दशा कैसे भुलाऊँ,
किसका किसका शोक मनाऊँ....
सूने शहर में सिसकते सिमटते,
विषाणु के आगे बस बेबस बिलखते।
डर डर के भला समय कैसे बिताऊँ,
किसका किसका शोक मनाऊँ.....
क्रन्दित हृदय चीत्कार को व्याकुल है,
तम घनघोर आस बुझने को आतुर है।
क्षोभित अंतर्मन को कैसे ढाढ़स बंधाऊँ,
किसका किसका शोक मनाऊँ......

-रश्मि मिश्रा

Saturday, December 22, 2012

भारत माँ


स्व-हिताय, स्व-सुखाय
संसोधनों के स्वांग में,
हो सके तो भारत माँ को पिता का दर्ज दे दो।
क्योंकि माँ पर तो सरेआम खतरे हैं,
कम से कम पिता की आबरू तो नहीं लूटी जाती।

Tuesday, December 27, 2011

हमहूँ अब चुनाव लड़ब



छोट मोट धंधा से छोट कमाई होखेला
खूब पईसा औ नाम कमाइब हमहूँ अब चुनाव लड़ब

जालसाजी अऊर ठेकेदारी से कतना कमाल करब
बड़ा घोटाला कइके अब लाखन के व्यापार करब
खूब पुलिस के धमकी से थाना में परसाद चढ़इनी
अब उनसे आपन सेवा करबाईब
हमहूँ अब चुनाव लड़ब


घर फोन बिजली पानी के खर्चा ता मुफ्त रही
हमरो खाता स्विस बैंक में कर के झंझट से मुक्त रही
दुनिया भर के सुख मिली नौकर चाकर के रहला से
रेल टिकट के खर्च बचाइब
हमहूँ अब चुनाव लड़ब

हम गलत करीं चाहे सही करीं हमरा के ओसे मतलब का
जनता भिरी तबे तक जाईब जब तक उनसे मतलब बा
वृद्धा पेंसन, रोजगार गारंटी में घर वालन के नाम जोड़ाइब
जतना संभव भ्रष्ट हो जाइब
हमहूँ अब चुनाव लड़ब

नारी: एक परिचय

परिचय मेरा क्या है
पता नहीं कि कौन हूँ मैं 

गहरी सरिता सी कभी कभी
मैं धीरज और विश्वास भरी 
कभी मचलती लहरों सी
मैं अल्हड़ और उन्माद भरी 
आश्वस्त भी अनजान भी
रिक्त भी ऊफान भी 
दो अलग अलग पहचान लिए 
पता नहीं कि कौन हूँ मैं
 
गुजरे हुए ज़माने की
यादें या परछाई हूँ 
कभी रोशनी से रोशन
कभी अंधियारे से घबरायी हूँ 
नेता भी मैं आवाम मैं
शुरुआत मैं अंजाम मैं 
साहिल कभी मझधार मैं 
पता नहीं कि कौन हूँ मैं 

अधखिले पुष्प की कोमल अभिलाषा 
मैं नीर भरे नैनों की गाथा  
कभी प्रचंड ज्वाला सी हूँ
कभी तिमिर में लौ सी आशा 
इस पार मैं उस पार मैं 
अपना स्वयं आधार मैं
मैं अस्तित्व तलाशती नारी
पता नहीं कि कौन हूँ मैं   

Sunday, March 13, 2011

गंदगी

देखो ये गंदगी फ़ैल रही है
सर्वत्र इसके अंश
गलियों में चौराहों में
हरे भरे दिखते
पर कुम्हलाते चरागाहों में
गंदे पर साफ़ सुथरे से
घरों की नींव
जो भार सहने को मजबूर
लिए कचरे की विरासत
पल पल कराहती है
उन घरों में पनपी गन्दगी
दीवारों से बहती 
सड़कों पर पसर जाती है
फिर कोई मासूम
उस ढेर से 
अपने मतलब का सामान
टटोलता है
उस गंदगी को देख
मुस्कुराकर उसे
अन्यत्र धकेलता है
इंसानी पौध में
जड़ें जमाती
ये सबसे खेल रही है
गिद्धों ने जो गंदगी
छोड़ दी
नाले से अब वो
नदी बन गयी है
और अब ये तत्पर है
सिंचित करने को
एक सूखी पर
साफ़ जगह को
जहाँ उगेंगी 
अभिशप्त फसलें
और उनके बीज
क्या परिस्थिति इसे
गंगा में प्रवाहित करेगी
पर कौन सी गंगा यमुना
इसे समाहित करेगी
शायद हमें ही गिद्ध बनकर
इसे हरना होगा
बड़े ही सधे कदमों से
ये गंदगी विकराल रूप
धर रही है
देखो ये गंदगी
फ़ैल रही है........ 

Wednesday, March 9, 2011

थोड़ा थोड़ा चुभता है

मेरी ही शाखों पर एक दिन जिन सपनों ने आकार लिया
उन सपनों का मुझको यूँ ठुकराना थोड़ा थोड़ा चुभता है

हर पतझड़ के बाद मैं फिर से हरी भरी हो उठती हूँ
बस टूटे पत्तों का साथ न आना थोड़ा थोड़ा चुभता है

मेरे जिंदादिल लम्हों की जो शहर मिशालें देता था
उसकी सूनी गलियों का वीराना थोड़ा थोड़ा चुभता है

मैंने खुद से भी पहले जिनकी खुशियों की चिंता की
उन अपनों का मुझे सताना थोड़ा थोड़ा चुभता है

उन्मुक्त द्विजों सी यहाँ वहां मैं सदा उड़ानें भरती हूँ
पिंजरे में पंछी का शोर मचाना थोड़ा थोड़ा चुभता है

नदियों की कल कल में भी तो मीठा सा कोलाहल है
इन नदियों में सरहद बनवाना थोड़ा थोड़ा चुभता है

परिवर्तन की सोच युवा कल्पना का शहर बसाता
एक झटके से बुनियादें हिल जाना थोड़ा थोड़ा चुभता है

मुझको ईश्वर की सत्ता से कभी कोई इन्कार नहीं
किन्तु धर्म हेतु दंगे फैलाना थोड़ा थोड़ा चुभता है

तपती दोपहरी के बाद सभी को शाम सुहानी लगती है
पर किसी गरीब का भूखे सो जाना थोड़ा थोड़ा चुभता है

सब मसलों को भूल कभी मैं अपनी खातिर जी तो लूं
पर रोती  बस्ती में  मुस्काना  थोड़ा थोड़ा चुभता है